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अरहर दाल की खेती कैसे करे

अरहर दाल की खेती कैसे करे

अरहर की दाल घर से लेकर होटल, ढ़ाबों तक हर जगह पसंदी की जाती है। इसकी खपत भी खूब होती है। अच्छे और गुणवत्ता युक्त उत्पादन के लिए अरहर की उन्नत खेती के तौर तरीके जानाना आवश्यक है। यूं तो किसान इसकी खेती करते आ रहे हैं लेकिन अब कम समय में पकने वाली और अरहर के बाद दूसरी फसलें ले सकने की समय सीमा वाली किस्में भी आ गई हैं। इनकी जानकारी होना किसानों के लिए आवश्यक है।

अरहर की खेती कब की जाती है

अरहर की कम समय में पकने वाली किस्मों के विकसित होने से अरहर के बाद रबी सीजन की कई फसलें लेना आसान हुआ है। इससे किसनों की माली हालत सुधारने की दिशा में सुधार हुआ है। अरहर की खेती के बाद किसान बाजरा, ज्वार, मक्का, तिल, सोयाबीन, उडद, मूंग आदि की फसल ले सकते हैं। इसके अलावा अरहर की खेती के बाद फसल चक्र की बात करें तो अरहर के बाद गेहूं, अरहर—गेहूं—मूंग, अरहर—गन्ना, ग्रीष्म मूंग— अरहर एवं गेहूं, अति अगेती अरहर—आलू एवं उडद के अलावा अरहर—उडद—मसूर या तारामीरा जैसी फसलों का चक्र बनाकर साल भर पैसे का चक्र बनाया जा सकता है। दालों में अरहर की दाल सबको भाती है और इसकी कीमत भी ठीक ठाक मिलती है। इसकी बिजाई जून—जुलाई में की जाती है।

अरहर की खेती के लिए भूमि का चुनाव

arhar farm

अरहर विभिन्न प्रकार की भूमि में लगाया जा सकता है। अरहर की खेती के लिए हल्की रेतीली दोमट या मध्यम भूमि जिसमें प्रचुर मात्रा में स्फुर तथा जिसका पी.एच. मान 7-8 के बीच में हो व समुचित जल निकासी वाली हो इसके लिये सर्वोत्तम होती है।

बीज की मात्रा एवं बीजोपचार

उन्नत किस्मों का बीज 18-20 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से बुआई करें। मृदा जनित रोगों से बचाव के लिए बीज को फफूंदनाशक दवा थाइरम या कार्बेन्डाजिम को 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज में मिलाकर उपचारित करें। तत्पश्चात, बीज को राइजोबियम कल्चर 5 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित करें। 50 ग्राम गुड़ या चीनी को 1-2 लीटर पानी में घोलकर उबाल लें। घोल के ठंडा होने पर उसमें 200 ग्रा. राइजोबियम कल्चर मिला दें। इस कल्चर में 10 किलोग्राम बीज डाल कर अच्छे से मिला लें ताकि प्रत्येक बीज पर कल्चर का लेप चिपक जाये। बीज को कल्चर से उपचरित करने के बाद छाया में सुखाकर शीघ्र बुवाई करें। उपचारित बीज को कभी भी धूप में न सुखायें।

अरहर की उच्च उपज किस्म

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भारत वर्ष के उत्तरी क्षेत्रों के लिए अनेक किस्में विकसित हो चुकी हैं। क्षेत्रीय परिस्थितियों के अनुरूप प्रजाति का चयन करना चाहिए। इन सभी किस्मों की औसत उजप 20 से 25 कुंतल प्रति हैक्टेयर तक मिलती है। 

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उत्तर पश्चिमी क्षेत्र विशेषकर पंजाब के लिए पीपीएच—4 किस्म की हाइब्रिड प्रजाति अच्छी हे। उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा राज्य के लिए पूसा 992 एसडी सभी क्षेत्रों के लिए, पंजाब और उत्तरी राजस्थान हेतु पूसा 99 संपूर्ण क्षेत्र, पूसा 2001 एवं 2002 संपूर्ण क्षेत्र, आजाद एलडी—यूपी—बिहार, विरसा एमडी किम बिहार के पहाड़ी इलाके, डब्ल्यूआर किस्म यूपी बिहार, पूसा—9 संपूूर्ण क्षेत्र, नरेन्द्र अरहर  पूर्वी उत्तर प्रदेश, श्वेता—पश्चिम बंगाल, जागृृति संपूर्ण क्षेत्र, आईसीपीएल—मैदानी भाग, आईसीपीएच हाइब्रिड संपूूर्ण क्षेत्र में बुवाई हेतु उपयुक्त हैं। कई किस्में रोग रोधी भी हैं। अगेती किस्मों में जून में बोने को पारस, यूपीएस 120, पूसा 992 एवं टी—21 जुलाई में बोने के लिए बहार, अमर, नरेन्द्र , आजाद, पूसा 9, मालवीय विकास, मालवीय चमत्कार, नरेन्द्र अरहर 2 जैसी अनेक किस्में हैं। नई अगेती प्रजाति में प्रजाति पंत अरहर-421 को पश्चिमी यूपी, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड के मैदानी हिस्से में उगाया जाएगा। 

अरहर की बुआई का समय एवं विधि

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 शीघ्र पकने वाली किस्मों की बुआई सिंचित क्षेत्रों में जून के प्रथम पखवाड़े तथा मध्यम देर से पकने वाली प्रजातियों की बुआई जून के द्वितीय पखवाड़े में करें। बुआई सीडड्रिल या हल के पीछे चोंगा बांधकर पंक्तियों में करें। ऐसे खेत जिनमे जल भराव की समस्या हो उनमे बुवाई के लिए कूड़ एवं पंक्ति विधि उपयुक्त होती है। शीघ्र पकने वाली जातियों के लिये पंक्तियों के बीच की दूरी 30-45 सेण्टीमीटर तथा पौधे से पौधे के बीच की दूरी 10-15 सेण्टीमीटर, मध्यम तथा देर से पकने वाली जातियों के लिये 60-75 सेण्टीमीटर कतार से कतार तथा पौधे से पौधे की दूरी 20-25 सेण्टीमीटर रखते हैं। 

अरहर के लिए उर्वरक

अरहर की फसल को रोगों से बचाव के लिए एवं पैदावार बढ़ाने के लिए खाद और उर्वरक का प्रयोग हमेशा मिट्टी की जांच के बाद ही करें। मृदा परीक्षण के आधार पर समस्त उर्वरक अंतिम जुताई के समय हल के पीछे कूड़ में बीजों से 2 सेण्टीमीटर की गहराई व 5 सेण्टीमीटर साइड में देना सर्वोत्तम रहता है। प्रति हेक्टर 20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 केजी फास्फोरस, 20 केजी पोटाश व 20 केजी गंधक की आवश्यकता होती है। जिन क्षेत्रों में जस्ता की कमी हो वहां पर 25 केजी जिंक सल्फेट प्रयोग करें। नाइट्रोजन एवं फस्फोरस की कमी समस्त भूमियों में होती है। किन्तु पोटाश एवं जिंक का प्रयोग मृदा परिक्षण उपरान्त खेत में कमी होने पर ही करें। नत्रजन एवं फासफोरस की संयुक्त रूप से पूर्ति हेतु 100 केजी डाई अमोनियम फास्फेट एवं गंधक की पूर्ति हेतु 100 केजी जिप्सम प्रति हेक्टेयर का प्रयोग करने पर अधिक उपज प्राप्त होती है।

 

सिंचाई एवं जल निकास

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जहां सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो वहां पर बारिश न होने पर एक हल्की सिंचाई फूल आने पर व दूसरी फलियां बनने की अवस्था पर करने से पैदावार में बढ़ोतरी होती है। अधिक अरहर उत्पादन के लिए खेत में उचित जल निकास का होना प्रथम शर्त है अत: निचले एवं अधो जल निकास की समस्या वाले क्षेत्रों में मेड़ों पर बुवाई करना उत्तम रहता है। 

अरहर में खरपतवार नियंत्रण

प्रथम 60 दिनों में खेत में खरपतवार की मौजूदगी अत्यन्त नुकसानदायक होती है। इसकी खुरपी से दो बार निराई करें। प्रथम बुवाई के 25-30 दिन बाद एवं द्वितीय 45-60 दिन बाद खरपतवारों के प्रभावी नियंत्रण के साथ मृदा वायु-संचार होता है। पेन्डीमिथालिन 1.25 कि.ग्रा. सकिय तत्व/हे. की दर से बुवाई के बाद 3 दिनों के अंदर प्रयोग करने से खरपतवार खेत में नहीं उगता है। 

भण्डारण

भण्डारण हेतु नमी का प्रतिशत 10-11 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। भण्डारण में कीटों से सुरक्षा हेतु एल्यूमीनियम फास्फाइड की 2 गोली प्रति टन प्रयोग करें।

वैज्ञानिकों ने तैयार की अरहर की नई किस्म, कम जल खपत में देगी अधिक उपज

वैज्ञानिकों ने तैयार की अरहर की नई किस्म, कम जल खपत में देगी अधिक उपज

राजस्थान राज्य में स्थित कोटा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक ने अरहर की नई किस्म तैयार करली है। इस किस्म में कम पानी की आवश्यकता पड़ेगी, साथ ही आमदनी में भी इजाफा देखने को मिलेगा। देश के किसान दलहन, तिलहन एवं अन्य बागवानी फसलों का उत्पादन करके मोटी आय कर लेते हैं। आए दिन प्रदूषण में होने वाली वृद्धि के साथ-साथ खराब होती जलवायु का प्रभाव फसलों की पैदावार पर भी देखने को मिला है। अच्छी खेती के लिए अच्छा बीज होना भी अत्यंत आवश्यक है। बीज उत्पादकता बढ़ाने, कम जल खपत और बाकी गुणवत्ताओं से युक्त होना चाहिए। इस विषय को लेकर कृषि वैज्ञानिक निरंतर उन्नत किस्म के बीज विकसित करने के लिए शोध में लगे रहते हैं। हाल ही, में ऐसा ही शोध वैज्ञानिकों की तरफ से किया गया है। बतादें, कि अरहर के उन्नत बीज से देश के किसान अंधाधुंध कमाई कर सकेंगे। नवीन प्रजाति के आने से किसान काफी प्रशन्न हैं। 

वैज्ञानिकों ने अरहर की नई प्रजाति एएल-882 तैयार की है

भारत के अंदर बड़ी तादात में किसान दलहन फसलों की बुवाई करते हैं। मीडिया खबरों के मुताबिक, कोटा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक अरहद की नवीन किस्म को तैयार करने के लिए विगत 2 वर्षों से नई प्रजाति विकसित करने में जुटे हुए थे। अब जाकर वैज्ञानिकों के हाथ सफलता लग पाई है। वैज्ञानिकों ने अरहर की नई किस्म एएल-882 तैयार की है। इस प्रजाति के दानों का वजन सिर्फ 8 से 9 ग्राम के आसपास ही है। 

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इस किस्म से 16 से 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक

मुख्य बात यह है, कि अरहर के बीजों का वजन भी कुछ ज्यादा नहीं होता है। इनका वजन मात्र 8 से 9 ग्राम तक ही होता है। अरहर की इस किस्म की खासियत यह है, कि इसका उत्पादन 16 से 19 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो सकता है। ज्यादा उत्पादन होने की वजह से किसानों को बेहतरीन आमदनी भी हो सकेगी। साथ ही, यह नई किस्म रोग प्रतिरोधक किस्म है। वहीं, अरहर की इस किस्म में होने वाला उखटा रोग भी नहीं हो पाएगा।

आईसीएआर ने भी स्वीकृति प्रदान की है

अरहर की इस किस्म को इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (icar) की तरफ से स्वीकृति भी दे दी गई है। किसान खेतों में इस किस्म के बीज का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। इसके पौधों की ऊंचाई लगभग 200 से 210 सेमी होती है। दानों का रंग भूरा रहता है, अधिक पैदावार पाने के लिए फूल निकलने पर ही एनपीके घुलनशीन उर्वरक का नियमित मात्रा के अनुरूप छिड़काव किया जा सकता है।

इस तरह से खेती करके किसान एक ही खेत में दो फसलें उगा सकते हैं

इस तरह से खेती करके किसान एक ही खेत में दो फसलें उगा सकते हैं

आजकल उपलब्ध आधुनिक कृषि तकनीकों से जोखिम को कम किया जा सकता है। इतना ही नहीं कुछ तकनीकें तो कम वक्त में फसलों से ज्यादा आमदनी कराने में भी सहयोग करती हैं। वर्तमान में किसान एक ही भूमि पर एक साथ 2 से अधिक फसलें उत्पादित कर सकता है। आधुनिकता के जमाने में फिलहाल हमारा कृषि क्षेत्र भी सुपर एडवांस होने की दिशा में तेजी से बढ़ता जा रहा है। किसान आजकल यंत्रों और नई तकनीकों के माध्यम से फसल का बेहतरीन उत्पादन कर रहे हैं। इसी कड़ी में जोखिम को कम करके कृषकों की आमदनी बढ़ाने हेतु वैज्ञानिक भी नित नई तरकीबें पेश कर रहे हैं। अंतरवर्तीय खेती भी इन तरकीबों में शामिल है। यह तरीका बढ़ती आबादी की खाद्य आपूर्ति सुनिश्चित करने एवं कम खेती-कम वक्त में ज्यादा पैदावार लेने में सहायक भूमिका निभा रहा है। अगर किसान को फसल चक्र की सटीक जानकारी है, तो वह अंतरवर्तीय खेती के जरिए अपनी आमदनी को दोगुनी कर सकता है। आजकल जायद सीजन की फसलों की बुवाई का कार्य चल रहा है। बहुत सारे किसान भाई अपने खेत में ग्रीष्मकालीन मूंग सहित विभिन्न दलहनी फसलों का उत्पादन ले सकते हैं। अगर कतारों में दलहन की बुवाई की गई है, तो मध्य में हल्दी, अदरक की भांति औषधी और मसाला फसलों का उत्पादन करके दोगुना उत्पादन ले सकते हैं। अंतरवर्तीय खेती की सर्वाधिक विशेष बात यही है, कि कतारों में 2 से ज्यादा फसलों की बुवाई की जा सकती हैं। इसमें अलग से खाद-उर्वरक का खर्चा नहीं आता है। किसान को केवल भिन्न-भिन्न बीज डालने होते हैं, जिसके उपरांत एक ही फसल में लगाए जाने वाले इनपु्ट्स से सारी फसलों की उन्नति हो सकती है।

अरहर और हल्दी की अंतरवर्तीय खेती से अच्छा मुनाफा हांसिल किया जा सकता है

अरहर एक प्रमुख दलहनी फसल मानी जाती है, तो वहीं मसाला एवं औषधी के रूप में बाजार में हल्दी की काफी मांग रहती है। एक ही भूमि पर कतारों में इन दोनों फसलों को बोया जा सकता है। हालांकि, हल्दी को छायादार जगह पर उत्पादित किया जाता है, इस वजह से अरहर समेत इसकी फसल लेना काफी फायदेमंद रहेगा। यह भी पढ़ें: कैसे करें हल्दी की खेती, जाने कौन सी हैं उन्नत किस्में एक साथ बुवाई करके दोनों फसलें पककर तैयार हो जाती हैं। अरहर जैसी दलहनी फसलों के साथ अंतरवर्तीय खेती करने का सबसे बड़ा लाभ यह है, कि यह फसलें वातावरण से नाइट्रोजन को सोखकर भूमि तक पहुंचाती हैं। इससे मिट्टी की उर्वरकता में वृद्धि होती है। वहीं साथ-साथ में उगने वाली फसल को इसका प्रत्यक्ष तौर पर फायदा मिलता है। विशेषज्ञों के अनुसार, दलहनी फसलों की खेती सहित अथवा इसके उपरांत बोई जाने वाली फसलों की पैदावार में वृद्धि हो जाती है। दलहनी फसलों की कटाई करने के उपरांत अलग से खाद-उर्वरक का इस्तेमाल नहीं करना होता है।

मृदा में कटाव होने से भी बचता है

जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव साफ तौर पर खेती-किसानी पर देखने को मिल रहा है। कभी बेमौसम बारिश तो कभी सूखा जैसी परिस्थितियों से फसलें चौपट होती जा रही हैं। भूजल स्तर में गिरावट आने से मृदा में कटाव काफी बढ़ रहा है। अंतरवर्तीय खेती को इस समस्या का सर्वोत्तम समाधान माना जाता है। एक सहित विभिन्न फसलों को लगाने से मृदा में जल को बांधने की क्षमता बढ़ जाती है। इससे वर्षा के समय में कटाव की समस्या नहीं रहती एवं मिट्टी में भी नमी बरकरार रहती है। अगर किसी कारणवश एक फसल को हानि पहुँच भी जाए तब भी किसान पर जीवनयापन करने हेतु दूसरी फसल का सहारा मिल जाता है। औषधीय फसलों की अंतरवर्तीय खेती करने अथवा फसल विविधता के चलते फसल में कीट-रोगों का प्रकोप नहीं रहता है। इससे कीटनाशकों का खर्चा बच जाता है। फसल की गुणवत्ता को उत्तम बनी रहने के साथ बाजार में उत्पादन को अच्छा खासा भाव मिल जाता है।

जानें इन फसलों को एकसाथ उगाया जाता है

भारत के तकरीबन समस्त क्षेत्रों में रबी फसलों की कटाई का कार्य पूर्ण हो चुका है। कुछ किसान जायद सीजन की फसल उगा रहे हैं, तो वहीं कुछ खरीफ सीजन के लिए भूमि को तैयार कर रहे हैं। किसान यदि चाहें तो खरीफ सीजन के दौरान अंतरवर्तीय पद्धति से उत्पादन कर सकते हैं। खरीफ सीजन के समय एक साथ उत्पादित की जाने वाली फसलों के अंतर्गत सोयाबीन + मक्का, मूंगफली + बाजरा, मूंगफली + तिल, मूंग + तिल, अरहर + मक्का,अरहर + सोयाबीन, अरहर + तिल, अरहर + मूंगफली आती हैं।